Monday 30 June 2014

अक्ल


अक्ल बिना बंधु देखो , सरै न एकौ काम |
सब जीवों में श्रेष्ठतम , मानव तेरा नाम||
मानव तेरा नाम, है यह विवेक सिखाती |
ऊँच-नीच की बात, मानवों को समझाती ||
इक जैसा हर जीव , बस जुदा-जुदा है शक्ल |
नर वानर में भेद, बताती है सिर्फ अक्ल ||

चिंतन


चिंतन की मथनी करे, मन का मंथन नित्य |
सार-सार तरै ऊपर , छूटे निकृष्ट कृत्य ||
छूटे निकृष्ट कृत्य , विचार में शुद्धि आए |
उज्ज्वल होय चरित्र, उत्तम व्यवहार बनाए||
मिले सटीक उपाय, समस्या  का हो भंजन |
चिंता भी हो  दूर , करें जब मन में चितन ||

Friday 27 June 2014

मृगतृष्णा ( कुण्डलिया )

तृष्णा मृग की ज्यों उसे, सहरा में भटकाय |

तप्त रेत में भी उसे, जल का बिम्ब दिखाय ||


जल का बिम्ब दिखाय, बुझे पर प्यास न उसकी|


त्यों माया से होय , बुद्धि कुंठित मानव की ||


प्रज्ञा का पट खोल, नाम ले राधे - कृष्णा |


सुमिरन करते साथ, मिटेगी हरेक तृष्णा ||

Monday 23 June 2014

कविता क्या है ??

कविता क्या है ??
आत्मानुभूति, 
आत्मानंद, 
आत्मप्रकटीकरण है कविता 
या आत्मवंचना से खुद को छलना? 
प्रत्यक्ष का बयाँ है
या अप्रत्यक्ष की संभावना है ?
कुछ व्यक्त से विचार
या अव्यक्त से भाव ?
स्वपीड़ा का प्रकटीकरण
या परपीड़ा से व्यथित मन?
कुछ सीधे, सच्चे, सरल विचार
या विचारों का गुच्छित जाल?
स्पष्ट दिखता जो सामने
उसे देख पाना
या पीछे छिपी बातों का कयास लगाना?
मन को सहलाते, पंखों से हल्के-फुल्के शब्द
या अतिसूक्ष्म भावों को लिए स्थूल शब्द?
सप्रयास कही जाए,
या स्वतः स्फूर्त हो जो
वह कविता है?

Monday 9 June 2014

एक नज़्म .. कुछ हसीं बातें

कुछ हसीं ख्याल 
~~~~~~~~~
चलो, कुछ और बात करते हैं..
न हम अपने गम कहें 
न तुम्हारे गमों को सुनते हैं ..
बहुत रंज हैं, गम हैं 
शिक़वे-शिकायतें हैं दुनिया में 
छोड़ कडवाहटों को 
कुछ मीठी बात करते हैं ...
चलो अब चेहरे पर 
मुस्कुराहटों का
एक नया नक़ाब बुनते हैं ...
क्यों बीच में आएँ
वही रोज़- रोज़ के झगड़े
कुछ परेशानियाँ मेरी
कुछ तेरे रोज़ के रगड़े
गिर्द जाल बुने हैं जो तेरे-मेरे
उन उलझनों के ताने बाने में
हसीं बातों के मोतियों को पिरो
चाँद-तारों के ख्यालात करते हैं
चलो अब हम
कुछ और बात करते हैं

शब्द

शब्द
~~~
शब्द..
ऐसे ही नहीं उकर आते
अभिव्यक्ति यूँही नहीं ले लेती है आकार
देर तक
धीमे-धीमे सुलगती हैं
सीले से भावों की लकड़ियाँ
और
विचारों के कोयले
अस्पष्टता के धुएँ में
धुंधला जाती है ज़ुबान
भीतर ही भीतर सुलगते अहसासों पर
जमती जाती है
अव्यक्तता की राख...
फिर अचानक कभी
चटक कर फूटता है कोई भाव
और शब्दों की चिंगारियाँ
फूट बिखरती हैं फिजा में
कुछ शब्द हाथ आते हैं
कुछ छूट निकलते हैं
कुछ शब्दों को छूने से
जलती है जुबां
कुछ से कलम और कुछ से जहाँ
कुछ शब्द चिंगारियाँ
आ गिरती हैं मानस पटल पर
कुछ ठंडी होने पर
स्याही से उनकी
उभरते हैं कुछ अनमोल से
शब्द 

Monday 2 June 2014

क्षणिकाएं ....

शून्य (क्षणिका)
~~~~
प्रतीक्षविहीन पल
न मन में आस, न विश्वास.
न अब कोई आहट
न मन के द्वार खटखटाहट 
हर तरफ बस एक शून्य 
निशब्द सी कुछ घड़ियाँ 
बस चलते चले जा रहे हैं 
सदियों से लम्बे 
ये प्रतीक्षविहीन पल

~~~~~~~~~~~

अदृश्य दीवारें 
~~~~~~~
अदृश्य दीवारें 
कुछ अदृश्य बाँध 
रोकते हैं मार्ग 
विचारों के प्रवाह का 
मन के उत्साह का 
खुशियों की गति को 
करके अवरुद्ध
मार्ग में आ अड़ती हैं
कुछ अदृश्य दीवारें .....

एक नज़्म .. कुछ तो था


कुछ तो था 
हमारे दरम्यां
कुछ तरल सा था 
जो अश्क बन आँखों से बह गया
कुछ ठोस था
जो बोझ बन
दिल पर टिका सा रह गया
कुछ आग थी जो रात-दिन
पल-पल सुलगाती रही
कुछ बर्फ़ थी जो
जज्बातों को जमाती रही
कुछ मखमली लम्हात थे
कुछ खुरदुरे अहसास थे
कुछ चांदनी चाँद की थी
कुछ स्याही स्याह रात की थी
कुछ फूलों की नर्म छुअन
तो नागफनी सी कभी चुभन
जो टूट के भी मिटा नहीं
जो छूट के भी छूटा नहीं
वो कसक थी कोई कि दीवानगी
कोई वादा था कि इरादा था
बेवजूद था कि बावजूद था
पर
कुछ तो था .....

एक नज़्म .... आमद तुम्हारी याद की


~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
न रात के आँचल पे टंका था चाँद
न झील के दमन में खिले थे कंवल
न गुंचे फूल के समां महका रहे थे 
न भँवरे प्रेम रागिनी कोई गा रहे थे
फिर अचानक क्या हुआ कि जो
यूँ महकने, खिलखिलाने लगा समां
कैसे दिल में चांदनी की ठंडक उतर गई
क्यूँ कंवल मन की झील में झिलमिलाये
हाँ ... कुछ तो हुआ है खास
मन के गलियारे में कुछ हलचल सी मची है
शायद तेरी यादों की आमद हुई है

एक ग़ज़ल ...
~~~~~~~
कि ज़िम्मेदारियाँ औरों पे टाले जा रहे हैं हम
खता अपनी छिपा के और की गिनवा रहे हैं हम

बड़े-बूढ़े, सयाने जो यहाँ कहके गए अब तक
फ़कत उन बातों को ही अब तलक दुहरा रहे हैं हम.

कई बातें थीं कहने को, कई बातें थी सुनने को
जुबां की खामुशी पे अब तलक पछता रहे हैं हम

कदम बहके, नज़र धुंधली, ठिकाना भी नहीं कोई
खुदा जाने की किस मंजिल की जानिब जा रहे हैं हम

नहीं अपनी कोई खूबी जो है ये नूर चहरे पे
अजी उनसे ही मिलकर के अभी बस आ रहे हैं हम ..
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