Monday 7 September 2015

प्यास थी मैं

प्यास थी मैं 
सहरा था तू
शुष्क, रसहीन, विरक्त, निर्मोही-सा 
न... नहीं भरमाया तूने मुझे 
मैं स्वयं को ही भरमाती रही
खुद को ही छलावे दिखलाती रही
दो बूँद पानी की आस मुझे
जाने कहाँ भटकाती रही
हाथ बढ़ा हर बार
छू लेना चाहा ... उस भ्रामक आद्रता को
जो नहीं थी
मेरे भाग्य और तुम्हारे स्वभाव में
ज़िन्दगी से दूर होते
और .. सूखती, चटकती, बिखरती रही
न तृप्त हो पाई कभी
क्योंकि
सहरा थे तुम
प्यास थी मैं
Shalini rastogi

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